सोमवार, 8 मार्च 2010

"रोड टू संगम": एक सशक्त, सार्थक फिल्म की असामयिक और अकाल .......

अभी कुछ दिनों पहले "रोड टू संगम" नामक फिल्म आई थी, आजकल वह रिलायंस के डीटीएच में दिखाई जा रही है.

मैंने यह फिल्म कुछ ही हफ्तों पहले मुंबई के एक सिनेमाघर में देखी. इस फिल्म को देखने के दो मुख्य कारण थे जिन्होनें मुझे इस मंहगाई के दौर में भी नजदीक के एक मल्टीप्लेक्स में देखने को विवश किया, एक इस लिए कि यह फिल्म मेरे प्रिय शहर इलाहाबाद में ही फिल्माई गई थी और इसके पोस्टर में वहाँ यमुना नदी के ऊपर बने नए पुल का चित्र था जो बहुचर्चित एवं बहुगर्वित "बांद्रा-वर्ली सी लिंक" के बरसों पहले उसी तकनीक से वहाँ बना था, दूसरा कारण था कि इस फिल्म के पोस्टर पर बहुत सारे पुरस्कारों की सूचना भी छपी थी. मुझे इस फिल्म के बारे में ज़रा भी जानकारी नहीं थी कि यह फिल्म किस विषय पर आधारित है परन्तु ओमपुरी एवं परेश रावल को देख कर समझा कि कुछ अच्छा ही होगा.

फिल्म देखने के बाद मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ इस फिल्म के लेखक एवं निर्देशक " अमित राय" को जिन्होंने इस असंवेदनशील एवं पूर्णतया व्यावसायिक मानसिकता वाले फिल्म उद्योग में अपनी पहली फिल्म के लिए इस सशक्त एवं बहु प्रतीक्षित विषय को चुना एवं धन्यवाद उस निर्माता को भी देना चाहूँगा जिन्होनें बिना किसी भी लाभ-हानि की परवाह करते हुए इस तरह की असाधारण फिल्म बनाने का जोखिम लिया.

विषय बहुत ही सम्वेदनशील, आज के मुस्लिम समाज के अपने धर्म एवं राष्ट्र के अंतर्द्वंद  एवं राष्ट्र पिता महात्मा गांधी से सम्बन्धित है .परेश रावल ने जिस तरह से एक मुस्लिम मैकेनिक की भूमिका में राष्ट्र एवं अपने मुस्लिम भाई बंधुओं के बीच फंसे एवं साफ़-सपाट बात कहने वाले व्यक्ति की भूमिका की है, वह अविस्मरणीय है. साधारणत: किसी भी फिल्म में मुस्लिम समाज के उन् संवेदनशील आंतरिक मामलों, खास तौर से जब वह कौम से एवं  मस्जिद,  से सम्बन्धित हों, को कभी नहीं दिखलाया गया है, परन्तु इस फिल्म में लेखक निर्देशक अमित राय ने जिस सावधानी से, आत्मा की गहराइयों तक इस अंतर्द्वंद को दिखाया है, वह किसी भी फिल्मकार के लिए एक बड़ी चुनौती से कम नहीं था और इस चुनौती को अमित ने बहुत ही धीरता, गहराई एवं संतुलन से निभाया है. मस्जिद के अंदर की बातचीतों, रण नीतियों एवं धर्म  के नाम पर साधारण मुस्लिमों की भावनाओं से होने वाले भावनात्मक खेल को भी पहली बार बेबाकी से दर्शाया गया.

पूरी फिल्म में यह कहीं भी अहसास नहीं होता है की किसी भी धर्म के आंतरिक एवं नाज़ुक मसलों हम कुठाराघात कर रहे हैं, उस भी पर महात्मा गाँधी एवं राष्ट्र को  इसमें जोड़कर.

फिल्म देखते हुए ऐसा लगता है कि हम स्वयं (दर्शक) ही उन् परिस्थितियों में , अंतर्द्वंद में फंसा हुआ एक सामान्य मुस्लिम हैं जो धर्म को ठेकेदारों एवं राष्ट्र के बीच छटपटा रहा है.  संवाद बेहद सीधे , स्पष्ट  एवं तीखे भी हैं जो किसी भी व्यक्ति के अंतरतम को झकझोर देते हैं.........संवाद, आज के मुस्लिम समाज के अंतर्द्वंद एवं उनके कारणों तथा निवारण पर एक बेहद स्वीकार्य वातावरण बनाते हैं.

फिल्म का तकनीकी पक्ष  बेहद अच्छा है. गीत- गीत फिल्म की गरिमा के अनुसार तथा स्तरीय है. फिल्म में एक और अहम किरदार है फिल्म की सच्ची लोकेशन, जो कि इलाहाबाद के उन मोहल्लों की है  जहाँ मुस्लिम समुदाय बहुतायत में न केवल रहते हैं बल्कि वहाँ  अपना व्यवसाय भी करते हैं. लोकेशन ने फिल्म के विषय एवं अनुभूति को बेहद सजीव बनाया है. इसका भी श्रेय निर्देशक एवं निर्माता को जाता है कि उन्होंने फिल्म को सच्चाई के समीप लाने में किसी भी प्रकार का परहेज़ नहीं किया.

अब हम बात करते हैं इस फिल्म के प्रति हुए गम्भीर दुर्व्यह्वार की. ...... मेरे आकलन  के अनुसार इस फिल्म को सारे देश में मनोरंजन कर से मुक्त कर देना चाहिए था. परन्तु न तो उत्तर प्रदेश में ऐसा हुआ और न ही महात्मा गाँधी को  अपनी व्यक्तिगत विरासत मानने एवं मुस्लिम समुदाय के हितचिन्तन  का दम भरने वाली कांग्रेस ने उसके द्वारा शासित किसी भी राज्य में इसे मनोरंजन कर मुक्ति की सुविधा प्रदान की.


बेसिर  पैर एवं वाहियात फिल्मों के दौर में इस फिल्म का विषय सोचना तथा इसका बनना एक बहुत बड़ी सुखद घटना है. अफ़सोस है कि लोग विदेशों में  अपने को "खान"  एवं अमेरिकी राष्ट्र भक्त नागरिक साबित करने वाली फिल्मों पर ८०-९० करोड खर्च कर देते हैं परन्तु अपने ही देश में इस सम्वेदंनशील फिल्म का वो शायद नाम भी नहीं जानते होंगे.

आश्चर्य है कि तमामों  मुद्दों पर काम करने वाले एन जी ओ ने भी इस फिल्म के लिए कोई अभियान किया. इससे भी बड़ी बात यह है कि हमारे फिल्म के बड़े बड़े तीरंदाजों भी इस फिल्म को देखने कि कोई भी सार्वजनिक अपील जनता से नहीं की, हालांकि यह बाध्य नहीं था परन्तु अपेक्षित अवश्य था और वह भी स्वयं से आगे बढ़ कर.......... फ़िल्मी सितारे एवं सितारे निर्माता निर्देशक, अपने निजी प्रचारक सलाहकारों की सलाह पर अपना जन्मदिन विकलांगों, कैंसर पीडितों एवं ऐसे ही अन्य जगहों पर उपस्थित हो कर अपनी छवि बनाने के लिए जो एक तमाशा करते हैं जो कि ज़्यादातर अविश्वसनीय ही लगता है, यदि वे इस फिल्म को देखने की अपील करते  तो यह बहुत बड़ा योगदान होता एवं उनकी अपने ही सह व्यवसायियों के प्रति उनकी सद्भावनाओं को दर्शाता और एक सशक्त, सार्थक फिल्म की असामयिक, अनावश्यक  और अकाल दुर्गति  टल सकती थी.

यह बात सभी पर लागू होती है चाहे वह खान हो या पाण्डेय या चोपड़ा, या ठाकरे.

और अंत में यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह लेख इस फिल्म का  कोई व्यवसायिक एवं अविश्वसनीय समीक्षा  नहीं है बल्कि एक संवेदनशील नागरिक  एवं फिल्मकार के ह्रदय से निकली सम्वेदना है और इस फिल्म के प्रति मेरी आत्मा से निकली एक अनुभूति है.

बुधवार, 19 अगस्त 2009

जिन्ना, जसवंत एवं भारतीय जनता पार्टी : एक भ्रमित त्रिकोण

आज जसवंत सिंह पार्टी से बड़ी ही बेरुखी से निष्कासित कर दिए गए | भारतीय जनता पार्टी का यह एक ऐसा निर्णय था जिससे सारे देश में एक वैचारिक चिंतन का अध्याय आरम्भ कर दिया है कि इस स्वतंत्र देश में क्या किसी नागरिक को अपने विचार एक लोकतान्त्रिक पद्धति से व्यक्त करने का अधिकार है कि नहीं ?

अनुशासन एवं लोकतंत्र की दुहाई देने वाले एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल में धमासान मचा हुआ है| लगातार दो राष्ट्रीय आम चुनावों में पराजय का सामना करने के बाद इस दल के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं में दोषारोपण का एक घमासान आरम्भ हुआ है | यह विचारणीय है कि इस दल के राज्य स्तर पर सत्ता सँभालने वाले नेताओं में जनता के प्रति एवं अपने दल के प्रति अनुशासन एवं समर्पण की भावना,इस दल की केन्द्रीय राजनीति में पदस्थ नेताओं से कई गुना अधिक है|तभी इस दल द्वारा तीन राज्यों में पुन: शासन करने का जनादेश आम जनता से प्राप्त किया | राजस्थान में यह दल राज्य स्तरीय नेतृत्व के सामन्ती व्यवहार से पराजय को प्राप्त हुआ. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजस्थान में भाजपा अपने अच्छे कार्यों के बाद भी हार गई, कारण केवल एक ही था कि वहां दल के कुछ नेता राष्ट्रीय राजनीति के दिग्गजों से आर्शीवाद प्राप्त कर तत्कालीन मुख्यमंत्री के विरुद्ध लामबंद होकर सत्ता से बाहर करने पूर्ण प्रयास कर रहा था क्यों कि मुख्यमंत्री का व्यवहार एवं मानसिक वातावरण, देश की स्वतंत्रता के ६२ वर्षों बाद अभी भी सामन्ती युग में विचरण कर रहा था और अभी भी है | राजस्थांन में कांग्रेस को सत्ता तक पहुँचाने में भारतीय जनता पार्टी के विद्रोही तत्वों का योगदान, कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ताओं से नि:संदेह अधिक था | यह एक बहुत बड़ा कटुसत्य है परन्तु कोई भी दल इसको स्वीकार नहीं करेगा |

भाजपा आज बहुत ही भयानक अंतर्द्वंद में फंसी हुई पार्टी है, जो किसी भी तरह से अपना एक ठोस एवं स्पष्ट मार्ग एवं दिशा तय नहीं कर पा रही है|अनुशासित एवं आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली इस पार्टी में आज "सभी स्वतंत्र" हैं अपना-अपना वक्तव्य देने को, किसी की किसी की भी चिंता नहीं है| लोकतंत्र की सही व्याख्या का देश में अधिकांश जनमानस ने जिस तरह से अर्थ लिया है वह अराजकता के अतिरिक्त कुछ नहीं, संभवत: इसी कमज़ोर समझ की शिकार इस पार्टी का केन्द्रीय संगठन भी है| जसवंत सिंह का प्रकरण इसी कमज़ोर समझ का एक ज्वलंत उदाहरण है |

इस देश के संविधान ने सभी नागरिकों को अपने विचार लोकतान्त्रिक ढंग से व्यक्त करने का अधिकार दिया है और जसवंत सिंह ने वही किया है | हर किसी को देश के संवैधानिक ढाँचे के अर्न्तगत एक दूसरे से भिन्न विचार रखने की भी स्वतंत्रता है | जसवंत यदि अपनी बौध्हिक क्षमतानुसार देश के इतिहास के झरोखों में झाँक कर कुछ देखने का प्रयास करते हैं तो इसमें बुरा क्या है | इतिहास सदैव पीडादायक होता है चाहे वह सुखद रह हो या कि दुखद, इस प्रकरण में सर्वाधिक दुखद रहा क्योंकि जिस साम्प्रदायिकता की बात आज की जाती है, उससे कहीं भयानक एवं दुखद बात यह है कि हमारे उस समय के शीर्षस्थ नेताओं ने यदि कुछ भूलें की हैं तो हमें उन्हें एक बड़े दिल से स्वीकार करना चाहिए ताकि भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति नहीं हो | साथ ही उस समय के नेताओं के महत्वपूर्ण कार्यों एवं बलिदानों का भी उसी विशाल ह्रदय से नमन किया जाना चाहिए |

देश विभाजन की मांग का मूल कारण धर्म आधारित राजनीति था और धर्म के आधार पर एक स्वतंत्र देश की मांग तब सामने आई जब एक अल्पसंख्यक धर्म के लोगों के प्रतिनिधियों को देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस में एक उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा था | यहीं से सम्भवत: धर्म पर आधारित एक पृथक राजनैतिक दल बनाने की भावना को प्रोत्साहन मिला जिसका लाभ "बांटो एवं राज करो" की भावना वाले ब्रिटिश शासकों ने उठाया | यह स्पष्ट है कि जब भी किसी को अपने घर में एक उचित मान नहीं मिलता है तो वह बाहर की ओर देखने लगता है और इसी अवसर की तलाश में घर के बाहरी शत्रु होते हैं और हानि पहुँचाने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते और दुर्भाग्य से जिन्ना के धर्म आधारित पृथक राष्ट्र बनाने की भावना को बलवती करने में इन दोनों कारणों की ही बराबर की भूमिका एवं ज़िम्मेदारी रही हो सकती है | यदि इस दिशा में कोई अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग इस अतिदुर्भाग्य पूर्ण घटना का विश्लेषण संविधान की सीमाओं के अर्न्तगत करता है तो इसमें इतना हाय तौबा मचने की क्या आवश्यकता है ?

आज जो भी पाकिस्तान और कश्मीर की समस्या है वह भी सम्भवत: हमारे उस समय के शासकों की भूलों का ही परिणाम है, इसे खुले दिल से स्वीकार करना ही चाहिए, इसमें न तो देश हित के विरुद्ध ही कुछ होता है और न ही पार्टी हितों के विरुद्ध | यह इस देश के एक स्वतंत्र नागरिक की अपनी व्याख्या हो सकती है जिससे मतभेद रखना भी सभी नागरिकों का अधिकार है |

अपनी पहचान एवं विचारधारा के अंधे जंगल में फंसी इस पार्टी का यह निर्णय उसकी हताशा का द्योतक है | युवा भारत के सभी दलों में आज युवाओं को आगे आने की आवश्यकता है खासतौर से भाजपा को | यदि समयानुकूल अपनी रणनीति में इस पार्टी ने परिवर्तन नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब जनता इसे इतिहास के टोकरे में डाल दे |

भारत हजारों वर्षों से बौध्हिक प्रतिभा का स्थान रहा है, शास्त्रार्थों की एक लम्बी परम्परा रही है हमारे देश में , इसलिए हम सभी को किसी भी विषय पर विरोध करने से बेहतर होगा कि हम शास्त्रार्थ करें और जो भो निर्णय हो उसे स्वीकार करें |

और अंत में यदि भाजपा को तथाकथित पार्टी अनुशासन व लोकतंत्र के बारे में कुछ सीखना है तो कांग्रेस से सीख ही लेना चाहिए कि जहाँ विरोध के स्वर हाई कमान की एक हुंकार से सदैव के लिए शांत हो जाते हैं | सियार के दलों की प्रकृति का ही समयानुसार अनुशरण करे तो इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाये नहीं होंगी | किसी भी पार्टी का एक ही सर्वमान्य नेता होता है लेकिन जिस पार्टी में सभी बुद्धिमान एवं नेता हों वहां ऐसे दृश्य अवश्यम्भावी हैं |

चलते चलते ........हम स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र मिले ६२ वर्ष हो चुके हैं लेकिन हम अभी भी विचारों की स्वतंत्रता के प्रति परिपक्व नहीं | शायद स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र की समझ अभी भी नहीं है न वोट देने वालों को और न ही वोट मांगने वालों को पर हम, हमारे नागरिक एवं हमारा देश स्वतंत्र है और विश्व का एक बड़ा लोकतान्त्रिक देश है ??....

सोमवार, 3 अगस्त 2009

क्यों कि मैं मुसलमान हूँ........??

अभी कुछ दिनों पहले ही एक नया (दरअसल पुराना) मुद्दा फिर से उठा या यूँ कह लीजिये कि उठाया गया कि एक फिल्म कलाकार को मुंबई की एक सम्भ्रांत समझी जाने वाली बस्ती के एक अपार्टमेन्ट में एक फ्लैट खरीदने की अनुमति, उस सोसायटी ने नहीं दी| कारण बताया गया कि खरीदने वाला एक मुसलमान है.....बस फिर क्या था देश में तो जैसे भूचाल ही आ गया था....हर टीवी अपनी रामप्यारी (ओबी वैन) लेकर पीड़ित के दरवाजे पर पहुँच गया कि इस "सेक्युलर...धर्म निरपेक्ष" राज्य में ऐसी साम्प्रदायिकता.......बहुत नाइंसाफी है.....एक "ब्रेकिंग न्यूज और एक्सक्ल्यूसिव" खबर का यह पूरा मामला बन सकता था........यह एक्सक्लूसिव तो नहीं बन सका क्योंकि सभी चैनलों के खबरी अपनी अपनी राम प्यारी लेकर वहां पहुँच गए थे.........

बड़े जोर शोर से इस छी छी और गन्दी वाली मानसिकता का पुरजोर विरोध किया गया....आज फिल्म कैमरे के सामने सबके छक्के छुडाने वाला सीरियल किलर......क्षमा करियेगा किसर, एक निरीह की तरह सूखे होंठों को लिए अपनी बेबसी दर्शा रहा था | उसके साथ थे हर मौके पर फिल्म उद्योग के किसी भी विषय खास तौर पर विवादास्पद विषयों पर अपनी बेबाक टिप्पणियां देने वाले बेहद बोल्ड फिल्मो के विशेषज्ञ, वे अपनी बेबाक और बोल्ड प्रतिक्रिया दे रहे थे....... दो दिन तक चैनलों को काफी मटेरियल मिल गया था.....धन्यवाद दें श्री बूटा सिंह के पुत्र सरबजीत का जिनकी खबर ने दर्शकों को ज़ल्द ही इस भयावह सांप्रदायिक भावना वाले प्रकरण से बचा लिया......पर यह खबर बहुत से प्रश्नों को जन्म दे गयी है जिसका जवाब आम जनता को मिलना ज़रूरी है....नहीं तो यह खबर हमारे बच्चों के कोमल मनों पर एक गहरा असर कर जायेगी......इन सवालो का जवाब दरअसल इस तथाकथित पीड़ित अभिनेता एवं उसके साथ खड़े वरिष्ठ सहयोगी एवं प्रसिद्द निर्देशक को भी देने होंगे.......और उनको भी जो ऐसी अनुकूल घटना को पाकर अपने अपने बिलों से बाहर आकर धर्म निरपेक्षता की चाशनी में लिपटा साम्प्रदायिकता का विष वमन करने लगते हैं और अपने को धर्म निरपेक्षता का ठेकेदार बताते हैं

सवाल कुछ यूँ हैं........

०१- जिस तरह से यह वातावरण पैदा किया गया उससे ऐसा लगता है कि मुंबई के सारे मुसलमान किसी अलग टापू पर रहते हैं जहाँ किसी अन्य धर्म के लोगों का दखल नहीं है........... क्या यह सच है....?

०२- क्या यह सच नहीं कि आज वह तथाकथित पीड़ित अभिनेता जहाँ है..वहां तक पहुँचने में सर्वधर्म के दर्शक वर्ग का सहयोग है....

०३- आज जहाँ शाहरुख़ खान, सलमान खान, आमिर खान, इमरान खान, फरदीन खान, अरसद वारसी आदि आदि अनेकों खान, अली, अहमदों को क्या इस देश के सिर्फ अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों ने स्टार और सुपर स्टार बनाया है? क्या इन लोगों को इस मुकाम पर पहुँचने में बहुसंख्यक अर्थात स्पष्ट रूप से "हिन्दू" धर्म के लोगों का स्नेह और प्रशंसा नहीं मिली है.....?

०४- ऐसी ही आवाज़ अभी कुछ वर्षों पहले एक ऐसे जोड़े ने भी उठाई थी, जिन्हें इसी देश के लोगों के देश का अति प्रसिद्द लेखक एवं गीतकार बनाया तथा उनकी पत्नी को देश की संसद में भी चुन कर भेजा... इसके अलावा उन्हें देश के विभिन्न उच्च पदों पर भी सुशोभित किया गया...........

०५- ऐसी ही आवाज़ देश के बहुत ही लोकप्रिय खिलाडी जिन्हें देश की क्रिकेट टीम का कप्तान भी बनाया गया था, ने उठाई थी जब उनके उपर मैच फिक्सिंग के आरोप लगाये गए थे........वे भूल गए थे की जब उन्हें देश की टीम में लिया गया था और उन्हें इस टीम का कप्तान बनाया गया था तब वह शायद मुसलमान नहीं थे ?? आज वही इस देश की लोक सभा के सदस्य हैं.. ...पाकिस्तान की नहीं. ......

०६- क्या ये सुपर स्टार मुंबई में किसी टापू पर रहते हैं ? क्या इन्हें किसी अन्य धर्म के लोगों ने अपने घर या ज़मीन नहीं बेचे...? क्या इनके आशियाने ज़मीन पर नहीं किसी आसमान पर लटके हुए हैं...?

०७- चलिए थोडा पीछे दृष्टि डालते हैं.......अभिनय सम्राट दिलीप कुमार, हास्य सम्राट महमूद, जानी वाकर, सुर सम्राट मोहम्मद रफी, प्रसिद्द निर्माता निर्देशक के आसिफ, महबूब खान, संगीत सम्राट नौशाद, गीतकार शकील बदायुनी, साहिर लुधियानवी आदि आदि ऐसे अनेकों अनगिनत नाम हैं जिन्हें सर्वधर्म के दर्शकों का सहयोग, स्नेह और प्रशंसा मिली | ये सभी मुंबई के संभ्रांत इलाकों में अपने अपने निजी आशियानों में रहते थे और रह रहे हैं.

यह वो देश है जहाँ अधिकांशत: सिर्फ योग्यता, प्रतिभा एवं मानसिकता की परख होती है | यह वो देश है जहाँ एक मुसलमान श्री डा० अब्दुल कलाम साहब, डा० ज़ाकिर हुसैन........देश के सर्वोच्च पद "राष्ट्रपति" पर पदासीन होता है....बहुत कम ही लोग जानते हैं कि इस देश की थल सेना के अत्यंत उच्च पद पर इसी देश के प्रसिद्द फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के भाई पदारुद्ध हैं | लेकिन एक अल्पसंख्यक होने के बाद भी उन्होंने जिस प्रतिभा, योग्यता, मानसिकता एवं कीर्तिमानों का प्रदर्शन किया, उतना ही समर्थन एवं स्नेह इन्हें मिला |यह इस देश की लाखों वर्ष पुरानी अद्भुत लोकतान्त्रिक एवं सर्वधर्म समभाव, वसुधैव कुटुम्बकम की लाखों वर्ष पुरानी परम्पराओं का ही प्रतीक एवं प्रतिफल है......यदि ऐसा नहीं होता तो मुग़ल शासक अकबर को दींन-ए-इलाही नामक सामजिक धर्म की आवश्यकता नहीं होती |

आज के इस वैश्विक संबंधों के वातावरण में सडी गली मानसिकता के बदलने की आवश्यकता है.... किसी के ऊपर अनायास दोषारोपण की नहीं......अब तो इस्लामिक देशों का तथाकथित शत्रु अमेरिका भी अपना अश्वेत राष्ट्रपति चुनता है.....और वो भी बराक "हुसैन" ओबामा.....

चलते-चलते.......क्या हमारी दृष्टि उन लोगों पर भी पड़ेगी जो अपने ही देश में विस्थापित हैं........और क्या इस कटु सत्य का उत्तर मिलेगा कि इन्हें विस्थापित बनाने वालों में किस मज़हब के आतंकी लोगों का हाथ है ? इस कडुवे सच को सामने देखते हुए भी हम बिना किसी भेदभाव के उन्ही के मज़हब के लोगों को पूरा स्नेह, समर्थन एवं सम्मान दे रहे हैं.....लेकिन. किसी को विस्थापित नहीं बना रहे हैं जो अपने तथाकथित उत्पीडन, अत्याचार की बेबुनियाद बात को लेकर हाय तौबा मचा रहे हैं....

और एक बात और देश के सभी राज्यों के नागरिक सद्भावनाओं से युक्त वातावरण को गुजरात के २००१ के उदाहरण से खारिज नहीं किया जा सकता.......

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

राजनैतिक आतंकवाद

देश अभी भी मुंबई हमलो से उबरा नहीं है. देश की सीमाओं पर पाकिस्तानी सैन्य जमावडा होता दिख रहा है.. लगभग हर दिन पाकिस्तान की तरफ़ से अपने सैन्य बाहुबल का घमंड प्रदर्शन होता दिखाई पड़ रहा है......यह सब दिखाना पाकिस्तान की अपनी राजनैतिक मज़बूरी तथा अमेरिका को युद्धोन्माद दिखा कर वातावरण को ठंडा करवाने की अप्रत्यक्ष नीति हो सकती है.

लेकिन अपने देश में जो भी हो रहा है.....वह अत्यन्त घृणित एवं निंदनीय राजनैतिक कृत्य हैं. जिससे यह सिद्ध होता है कि हमारे राजनैतिक दल, राष्ट्र की कैसी भी स्तिथि में अपना गंदा कार्य करने तथा कराने से बाज़ नहीं आते क्यों कि इनके लिए देश, जनता, राष्ट्र के प्रति किसी भी कर्तव्य से ऊपर उनका राजनैतिक हित है.

मुंबई हमले के एक महीने बाद कोंग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने कल एक शिगूफा छोड़ा कि मुंबई हमले में शामिल आतंकवादियों ने अपने कुछ साथियों को छोड़े जाने की शर्त रखी थी जिसे हमारी केन्द्र सरकार ने ठुकरा दिया............पिछले एक महीने से सभी भारतीय एवं विदेशी समाचार माध्यमों ने किसी भी अवसर पर इस बात का कोई भी ज़िक्र नहीं किया जबकि वे एक एक पल तथा हमले के समय की सुरक्षा बलों की उन रणनीतिक कार्रवाइयों को भी दिखा रहे थे जिसे नहीं दिखाना चाहिए था, पर किसी ने कभी भी, किसी भी मौके पर इस बात का ज़िक्र नहीं किया......पर न जाने दिग्विजय सिंह को कहाँ से यह जानकारी मिली कि आतंकवादियों ने अपने कुछ साथियों कि रिहाई की बात की थी जिसे बड़ी ही बहादुरी से संप्रग सरकार ने ठुकरा दिया........और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार की तरह कंधार काण्ड के बदले आतंकवादियों को रिहा नहीं किया............क्या कहना चाहते हैं दिग्विजय सिंह? इस संवेदनशील एवं दुःख की घड़ी में ओछी राजनीति का इतना नग्न प्रदर्शन सिर्फ़ कांग्रेस ही कर सकती है...........क्यों कि अंतुले के साम्प्रदायिकता की ओछी बयान बाज़ी को अभी बीते ज्यादा दिन नहीं हुए हैं कि कांग्रेस की तरफ़ से एक और घृणित उदाहरण पेश कर दिया गया.........ऐसे हैं हमारे तथाकथित सेकुलर और देशभक्त राजनैतिक दल एवं उनके नेता........

कवि हरिओम पंवार की एक कविता आज से लगभग २०-२५ वर्ष पहले सुनी थी, वह आज भी उतनी ही समीचीन है जितने उस समय थी " किस मौसम को गाली दें और किस मौसम को प्यार करें, राजनीति का सारा वातावरण घिनौना है, भोली जनता इनके लिए एक खिलौना है......"

उधर उत्तर प्रदेश में अपनी मुख्यमंत्री की सालगिरह मनाने के लिए उनके विधायक अपने ही अधिकारियों की तालिबानी रूप से हत्या कर देते हैं.........ये कैसा लोकतंत्र है.........? देश में यह हो क्या रहा है?

कोई सोची समझी राजनीति के तहत मुंबई हमलों में शहीद पुलिस अधिकारियों की हत्या पर तोलमोल के शब्दों द्वारा विवादित बयान दे रहा है.......जबकि सारा मामला देश के सामने है .....फ़िर भी जानबूझ कर किसी एक राजनैतिक दल को मुंबई एवं देश में आई इस मुसीबत एवं दुःख की घड़ी में भी राजनैतिक लाभ के लिए अपराधी ठहराने की कोशिश की जा रही है एवं अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान के हाथ मजबूत करने की साजिश की जा रही है और हमारी प्रतिष्ठित, संस्कारवान कांग्रेस अपने ही नेता को कुछ भी कह सकने में असमर्थ महसूस कर रही है.


बेशर्मी एवं नेतृत्व की नपुंसकता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या देखने को मिलेगा?

क्या आप अभी भी इन सड़े गले, बदबूदार राजनैतिक दलों एवं उनके कर्णधारों से अपने देश की भलाई की अपेक्षा कर सकते हैं..........


आज कांग्रेस के युवराज भी चुप हैं जिन्हें कलावती के दुःख की बहुत पीडा होती है (शायद वह भी प्रचार पाने के लिए) पर आज युवराज चुप हैं क्यों कि उन्हें भी इन मामलों पर कुछ भी बोल कर तथाकथित अल्पसंख्यक (पाकिस्तान की आबादी ज्यादा यहाँ पर मुस्लिमों की संख्या है) वोटों से हाथ नहीं धोने हैं .......क्यों कि आज की राजनीति की यही नीति है..........महारानी भी चुप हैं क्यों कि उनकी भी यही मज़बूरी है...........

जितना हमें बाहरी आतंकवादियों से खतरा नहीं है उससे ज्यादा हमारे इन राजनैतिक दलों द्बारा इस तरह के चलाये जा रहे राजनैतिक आतंकवाद से खतरा ai.........


गौर से देखिये, देश आज घरेलू राजनैतिक आतंकवाद से जूझता दिखाई पड़ रहा है....जामिया नगर की मुठभेंड में मारे गए आतंकवादियों के परिवारों को आर्थिक सहायता लेकर पहुंचे अमर सिंह को आज मुंबई पुलिस के तुकाराम के परिवार की चिंता नहीं क्यों कि वह एक बहुसंख्यक समुदाय से आता है और उसकी सहायता किसी भी प्रकार का प्रचार नहीं देगी तथा यह सहायता वोटों में परिवर्तित भी नहीं होगी.......


प्रांतीयता की विद्वेषपूर्ण राजनीति करने वाले भी आज अपनी झोली नहीं खोल रहे हैं क्यों कि इससे उनका मतलब सिद्ध नहीं होता..... प्रांतीयता की घृणित राजनीति का मुद्दा नही मिलता.

इस राजनैतिक आतंकवाद एवं सत्तामद में डूबे जनता के इन सेवकों से पूछना होगा...खासतौर से उस राजनीतिक दल से जिसने स्वाधीनता प्राप्ति के ४० साल तक लगातार एवं बाद के वर्षों में भी काफी समय तक राज किया तथा सता पर अभी भी दूसरे दलों की वैसाखी से कायम है,............


कि देश की स्वतंत्रता के ६० वर्षों बाद भी:........
०१-
आज देश के अधिकांश गावों में पीने का साफ़ पानी उपलब्ध क्यों नहीं ai.

०२- आज देश के अधिकांश गावों तथा नगरों में २४ घंटे बिजली की आपूर्ति क्यों नहीं है?

०३- देश के अधिकांश गावों में आज भी स्तरीय शिक्षा के लिए विद्यालय एवं महाविद्यालय क्यों नहीं हैं?

०४- देश के अधिकांश गावों में आज भी पक्की सड़कें क्यों नहीं हैं?

०५- देश की राजनीति का अपराधीकरण क्यों हुआ है?

०६- देश की जनता को एकजुट रखने की जगह धर्म, जाति एवं भाषा के आधार पर बांटा किसने और क्यों है?

०७- डाक्टर अम्बेडकर के दलितों के आरक्षण को जो उन्होंने केवल सिर्फ़ दस साल के लिए ही लागू किया था, उसे इस अवधि से आगे बढा कर पिछले ६० वर्षों से क्यों जारी रखा गया है? उन निर्धारित वर्षों में दलितों के उत्थान के लिए पर्याप्त योजनायें एवं सुविधाएँ क्यों नहीं दी गईं?

०८- क्यों किसी एक समुदाय का समुचित विकास न करवा कर, उस समुदाय का केवल वोटों की खातिर तुष्टिकरण किया गया?

०९- क्यों नही इस देश में एक सी शिक्षा प्रणाली लागू की गई?

१०- क्यों इस देश के विद्यार्थियों के बीच अमीरी एवं गरीबी, ऊँच एवं नीच, अगड़ा एवं पिछड़ा का भावः पैदा किया गया?

११- क्यों नही इस देश के सभी प्रदेशों में एक सा ही पाठ्यक्रम लागू किया गया ताकि किसी भी विद्यार्थी के मन में हीनता का भाव न आने पाये?

१२- क्यों आज गरीब नागरिक साठ साल बाद भी गरीब है?

१३- क्यों गरीबों, पिछडों और दलितों के मसीहा अरबपति, करोड़ों पति तथा अकूत सम्पत्ति के स्वामी हैं? जबकि इनका एक बहुत बडा भाग अभी भी गरीब तथा अशिक्षित है.

१४- क्यों एक गरीब या साधारण व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता?

१५- चुनावों में पानी की तरह पैसा बहाने के लिए धन इन राजनीतिज्ञों के पास कहाँ से आता है?

ऐसे कितने ही अनगिनत सवाल हैं जिनका उत्तर इन राजनीतिज्ञों से ही लेना होगा क्यों कि यही इन सवालों के प्रति उत्तरदायी हैं .....

इस राजनैतिक आतंकवाद एवं अनाचार से हमें निबटना ही होगा..देश के नागरिकों को सोचना और तय करना होगा कि इनसे कैसे निबटा जाए......देश के युवाओं को यह सोचना एवं आगे बढ़ कर देश की राजनीति की मुख्यधारा में प्रवेश करना होगा......देश को घरेलू आतताईयों से मुक्त कराना ही होगा.........

पाकिस्तान से आने वाले आतंकवादियों से तो निबटना ही है परन्तु सबसे पहले हमें अपने घर की व्यवस्था को सुधारना होगा, उसे आंतरिक अनाचार विशेष कर राजनैतिक अनाचार से मुक्त कराना होगा या उन पर एक कड़ी नज़र तथा लगाम लगानी होगी तभी इस देश का भला हो सकता है ............

मधुकर पाण्डेय

मुंबई

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

पाकिस्तान और हम .......

कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिनके बारे में कुछ भी रचनात्मक सोचना महज अपने आप को धोखे में रखना होता है उनका जन्म, उनका विकास और उनकी प्रवृत्ति सदैव से ही विध्वंशात्मक एवं नकारात्मक होती है. हमारे वेद-पुराणों में सहृदयता,सदभाव, सहधर्मिता एवं वसुधैव कुटुम्बकं की अवधारणा है परन्तु उन्हीं वेद-पुराणों में ही अधर्म एवं अत्याचार के विनाश की भी बात कही गई है. स्वयं ईश्वर ने मानव रूप धर इस पृथ्वी पर इस अत्याचार एवं अधर्म का विनाश किया है जिस अत्याचार एवं अधर्म ने मानवता के अस्तित्व को ही समाप्त करने की ठान ली थी.

आज भी लगभग वैसी ही स्तिथियाँ मानवता के सामने है. विशेषकर भारत के सामने आज हमारा ही पडोसी पिछले ६० वर्षों से हमारे देश का शत्रु बना बैठा है. हमारी प्रगति, हमारे लोकतंत्र, हमारी अनेकता में एकता से ईर्ष्यालु हमारा यह पडोसी, अपने जन्म से ही हमें परेशान करने के अलावा कुछ और नहीं सोचता एवं करता है. वहां कोई भी सरकार आए चाहे वह लोकतान्त्रिक सरकार हो या तानाशाह की सरकार, सबका एक ही एजेंडा रहता है कि भारत को कैसे परेशान किया जाए चाहे वह कश्मीर का मामला हो या फ़िर सियाचिन का या फ़िर कुछ और........उन्हें भारत में अस्थिरता फैलाना अपना राष्ट्रीय धर्म लगता है. सभी एक ही भाषा बोलते नज़र आते हैं.

भारत की परमाणु क्षमता से उसको भी परमाणु सम्पन्न देश बनने की चाह जाग उठी, भले ही वह परमाणु तकनीक चोरी छुपे ही क्यों न हासिल की गई हो. आज एक ऐसे नासमझ एवं अदूरदर्शी देश के हाथ में परमाणु तकनीक आ गई है जिससे इस क्षेत्र के सभी राष्ट्रों को खतरा है. क्यों कि पाकिस्तान की सेना तथा सेना के अधीन आई.एस.आई., पाकिस्तान के कट्टरपंथी गुटों के साथ भारत विरोधी गतिविधियों का संचालन करते रहते हैं, यह तथ्य समय समय पर भारत सरकार ने उठाया है. इसलिए परमाणु सम्पन्न होने के बाद इन कट्टरपंथियों से और भी ज्यादा खतरा है.

हमने अपने राष्ट्रीय स्वभाव एवं संस्कृति के अनुरूप पाकिस्तान से कई बार मित्रता का प्रयास किया परन्तु सदैव ही हमें धोखा खाना पड़ा. पाकिस्तान ने सदैव ही हमारे पीठ पर छुरा भोंकने का ही कार्य किया है.

परन्तु अब समय आ गया है कि हम यह पूरी तरह से निश्चित कर लें कि हमें अपने इस नापाक पाकिस्तान से किस तरह का सम्बन्ध रखना है. आज इसी पाकिस्तान के कारण ही हमारी जनता कहीं पर भी सुरक्षित नहीं अनुभव करती है. चाहे वह देश का पूर्वोत्तर भाग हो, दक्षिण का भाग हो या कि पश्चिमी एवं मध्य भारत. उत्तरी भारत तो लगातार इस देश से आए आतंकियों का निशाना रहा है. कुल निष्कर्ष यह है कि यह देश अपनी नापाक हरकतों और इरादों को हर हाल में भारत की धरती पर अंजाम देता रहेगा.

पिछले ६० वर्ष का समय पर्याप्त होता है कि हम यह निर्धारित कर सकें किसी भी देश के साथ किस तरह का सम्बन्ध रखा जाए. अब घडी कड़े निर्णय लेने की है. इसके लिए राष्ट्र की जनता, राष्ट्र के राजनीतिज्ञों को एक बहुत ही सशक्त आत्म शक्ति की आवश्यकता होगी. बिना राजनैतिक दृढ़ इच्छाशक्ति के यह सम्भव नहीं है. पर क्या इतनी दृढ़ इच्छाशक्ति आज के राजनैतिक नेतृत्वों में है.? यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है क्यों कि कहीं ऐसा तो नहीं कि तुष्टिकरण एवं तथाकथित वोटों का लालच देश हित में आवश्यक कडे कदम उठाने से रोक रहा हो.

यह यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि हमारी संसद ने एक सुर से कुछ वर्ष पहले "पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर" वाले हिस्से को उसके चंगुल से मुक्त करने का संकल्प लिया था. चुनावी आश्वासनों की तरह संविधान के इस पावन मन्दिर में लिए गए उस संकल्प को इन सांसदों को नहीं भूलना चाहिए. यदि इन संकल्पों को पूरा करने की शक्ति नहीं है तो ऐसे भ्रामक संकल्पों को नहीं लेना चाहिए.. हम पिछले तीन युद्धों में अपने वीर सैनिकों का बलिदान देकर पाकिस्तान की जमीन पर काफी हद तक कब्जा कर लेते हैं और फ़िर सहृदयता का परिचय देते हुए उसे उसकी भूमि वापस भी कर देते हैं पर पाकिस्तान पिछले ६० वर्षों से हमारे कश्मीर के हिस्से , जो कि अब "पाक अधिकृत कश्मीर" कहा जाता है., को कब्जा किए हुए बैठा है, वह उस पर बात तक नहीं करता........

हमारे देश के इतिहास में पूर्व में बड़ी कूटनीतिक गलतियां होती रही हैं जिसका खामियाजा देश की कई पीढियों को भुगतना पड़ रहा है.....पहली गलती हमारे प्रथम प्रधानमन्त्री द्वारा हुई जब वह पाकिस्तान के कबायली आक्रमण की घटना को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ चले गए.....उसी समय यदि तात्कालिक निर्णय लेकर सेना को समय रहते कश्मीर भेज दिया गया होता तो आज दृश्य ही कुछ और होता दूसरी भयानक कूटनीतिक गलती तब हुई जब पाकिस्तान के ९०,००० सैनिक हमारे यहाँ युद्ध बंदी थे.........उस समय पाकिस्तान दबाव में था.....उसी समय "पाक अधिकृत कश्मीर" की वापसी के लिए बात की जाती तो आज दृश्य कुछ और ही होता........ अब बस यह देखना है कि तीसरी कोई बड़ी कूटनीतिक गलती हमारे राजनीतिज्ञों से न हो.........

अमेरिका, ब्रिटेन ये सभी पश्चिमी देश अपने निजी स्वार्थों के कारण तथाकथित आतंकवाद के विरोध में एकजुटता का आव्हाहन करते हैं परन्तु पाकिस्तान जाओ की सारे विश्व में आतंकवाद की पाठशाला है, प्रशिक्षण केन्द्र है.....ये सभी उसके विरुद्ध कड़ी कारवाई का कोई भी कदम नहीं उठाते हैं बल्कि आश्चर्य है कि अमेरिका जैसा देश पाकिस्तान को आतंकवाद से लड़ने के लिए अरबों डालर की सहायता देता है, यह स्पष्ट रूप से जानते हुए भी कि पाकिस्तान ही जो कि आतंकवाद का प्रमुख शोध केन्द्र है प्रमुख रणनीतिक केन्द्र है.......लगभग सभी प्रकार की गैरकानूनी गतिविधियाँ इस देश से समस्त विश्व में फैलाई जाती हैं. अमेरिका कभी भी हमारा सच्चा मित्र नहीं रहा है. यह वाही अमेरिका है जिसने १९७१ के भारत पाक युद्ध के समय हम पर दबाव बनाने के लिए अपना सातवाँ युद्धक बेडा अरबा सागर में भेजने की धमकी दी थी. यह ठीक है की समय के साथ रिश्ते भी बदलते हैं लेकिन इन बदलावों में हमें सदैव अपने और पराये का ख्याल रखना होगा और या तभी सम्भव है जब हम किसी तथाकथित मित्र का इतिहास ठीक तरह से समझते रहें. आज भी अमेरिका पाकिस्तान को पुचकारता रहता है.......क्या उसकी खुफिया एजेंसियों को यह नहीं मालूम कि सम्पूर्ण विश्व में आतंकवाद का निर्यातक देश कौन है?

पाकिस्तान की स्तिथि एक चरित्रहीन स्त्री की तरह है जो अपने एक प्रेमी को यह कह कर डराती है कि अगर उसने मेरा ठीक से ख्याल न रखा तो वह अपने दूसरे प्रेमी के पास चली जायेगी और इसी तरह वह दूसरे प्रेमी को भी समय समय पर डराती रहती है. पाकिस्तान के ये दो स्पष्ट प्रेमी हैं अमेरिका और चीन.........

आज भारत को एक दूरदर्शी एवं कडे निर्णय को लेने की आवश्यकता है जिसमें समस्त भारतीय नागरिकों की भी सहमति आवश्यक है क्यों कि किसी भी देश की नीतियाँ उस देश के नागरिकों को ही प्रभावित करती हैं, और नागरिकों से ही देश की पहचान एवं प्रगति बनती है........

मधुकर पाण्डेय

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

आज भारत को अपनी आत्मा के समुद्र मंथन की बहुत ही आवश्यकता है.......

यह देश किसका है? किसका अधिकार इस देश पर है?.......निश्चित ही तुम्हारा.......तुम्हारा अर्थात तुम जो इस देश के नागरिक हो उसका.......इस देश का भला सोचना, इसको प्रगति, सुख एवं शान्ति के राह पर अग्रसर कराने का उत्तरदायित्व तुम्हारा है......... क्यों कि तुम ही अपने जन प्रतिनिधि चुनते हो.....इस लिए देश की इस दुर्दशा, जो कि इस देश में इन जनप्रतिनिधियों ने की है, उसके अप्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी तुम भी हो...... तुम अपने इस उत्तरदायित्व से बच नहीं सकते.....

तुम अब ये मत कहना कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता मुहावरों से अब अपने को धोखा मत दो, क्यों कि ये तुम अपने को नहीं बल्कि आगे आने वाली पीढियों को धोखा दे रहे हो.

विचार बनाओ, विचार को सशक्त बनाओ, क्योंकि व्यक्ति मर सकता है, मारा जा सकता है लेकिन उसके द्वारा उत्पन्न किया गया, प्रसारित किया गया विचार कभी नहीं मरता.....वैचारिक क्रांति की सूत्रपात करो......

१५ अगस्त १९४७ को हम अंग्रेजों के चंगुल से आजाद अवश्य हो गए लेकिन आज ६० वर्ष के बाद भी हम शायद अभी भी ब्रिटिश मानसिकता से अलग नहीं हो पाये हैं. बांटो और राज करो की नीतियों को हमारे राजनीतिज्ञों ने विरासत में प्राप्त कर लिया है जो बदस्तूर अब तक जारी है. आरक्षण, अगडा-पिछडा, अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, इन विषाक्त मायाजालों के प्रभाव से बाहर आना ही होगा अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करना होगा, इन सरकारी और राजनीतिज्ञों की भीख में दी हुई वैशाखियों को फेंकना होगा........यह ज़िम्मेदारी हम सभी की है..... खास तौर से युवाओं की

आज विधायक, सांसद और अन्य राजनैतिक पदाधिकारी अधिकांशत:, जनता की सेवा के नाम पर लोगों से वोटों की भीख मांग कर स्वयं करोड़पति, अरबपति बनने का खेल रच रहे हैं. पर अधिकांशत: जनता जैसी आज़ादी के समय थी, वैसी ही आज भी है. यदि आम जनता ने जो भी प्रगति की है वह अधिकांशत: उसके अपने प्रयत्नों से हुई है.

बहुत से ऐसे विषय हैं, जहाँ तुम्हें बहुत ही गंभीरता पूर्वक सोचना होगा और बिना राजनीतिक लाभ को बीच में लाये हुए मात्र जनहित हेतु दूरगामी लाभ हेतु कुछ कठोर फैसले लेने होंगे.

क्या तुमने इस बात पर अपना ध्यान दिया है कि इस देश में पहली पंचवर्षीय योजना से अब तक ग्रामीण तथा शहरी विकास के किए कितने हजारों करोड़ रूपये व्यय किए जा चुके हैं. परन्तु शर्म की बात है कि आज भी हमारे अधिकांश ग्रामों में पीने योग्य पानी नहीं है, पक्की सड़कें नहीं हैं, बिजली नहीं है, चिकित्सालय, प्राथमिक विद्यालय जैसी मूलभूत सुविधाये नहीं है,.

प्रश्न ये है कि क्यों नहीं हैं?.........हजारों करोड़ रूपये जो इन ग्रामों के विकास हेतु व्यय किए गए, वे कहाँ हैं? जितने भी रूपये अब तक ग्रामों एवं नगरीय विकास के लिए व्यय किए गए हैं उनसे तो एक बहुत ही समृध्द, विकसित एवं आधुनिक सुविधाओं से युक्त नया राष्ट्र स्थापित हो जाता. परन्तु आज स्वतंत्रता के ६० वर्ष बाद भी हमारे गाँव तथा अधिकांश नगर मूलभूत नागरिक सुविधाओं से वंचित हैं. किसकी ज़िम्मेदारी है ये? यह सोचना होगा...........जिस देश में किसी भी योजना का सिर्फ़ २०-२५ प्रतिशत भाग धन ही विकास योजनाओं में लगता हो वहां का भविष्य क्या होगा? यह स्वयं स्पष्ट है. शेष धन ठेकेदारों, मंत्री, विधायकों, अधिकारियों की जेबों में जाता है........तभी ये सभी इन पदों पर येन केन प्रकारेण आसीन होने के लिए जद्दोजहद किया करते हैं......और नाम देश सेवा का देते हैं........

कौन सवाल उठाएगा इन धांधलियों पर?.....कौन रोकने की कोशिश करेगा इन अपराधों को? क्या राजनीतिक दल, अधिकारी.......नहीं कदापि नहीं ....इनमें से तो अधिकांशत: इन अपराधों में स्वयं ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लिप्त हैं.....तो फ़िर कौन होगा........? क्या भगवान् ! नहीं वो भी नहीं...........केवल तुम हाँ सिर्फ़ तुम ही हो जो एक सशक्त हथियार, रणभेरी सी गर्जना करती आवाज़ बन कर इन लोगों से मुकाबला कर सकते हो.....सिर्फ़ तुम............तुम अर्थात आज के नौजवान ...युवा पीढी, ……..मत थामो दामन किसी भी राजनीतिक दल का ....मत बनो किसी के हाथ का खिलौना.......मत आओ किसी तुच्छ से लालच में ....मत देखो सिर्फ़ अपना छुद्र सा स्वार्थ........विराट बनो......विशाल बनो......व्यापक बनो

जाति और धर्म को घर के भीतर रखो......समाज में नहीं.......छोडो इन छिछली बातों को .....छोडो प्रतिशोध के विचारों को....प्रगति की सोचो...... सदभाव की सोचो....और यह तभी सम्भव है जब तुम किसी भी राजनैतिक दल के मायाजाल में नहीं फंसोगे.......व्यक्तिगत प्रगति के विचार से अलग सोचोगे..........अपना उत्पीडन किसी भी प्रकार के मायावी नेताओं से मत कराना........तुम में वो अपूर्व शक्तियाँ हैं जो कि समाज की दिशा बदल सकती हैं राष्ट्र को फ़िर से सोने की चिडिया बना सकती हैं........लेकिन तुम्हें सोचना होगा...... समझना होगा, विश्लेषण करना होगा, एकजुट होना होगा, फ़िर एक निर्णय लेना होगा.....निर्णय परिवर्तन का,.. निर्णय शासन, प्रशासन और व्यवस्था से जवाब मांगने का......

क्यों कि यही तुम्हारा आज का कर्म है, आज का धर्मं है, सोचो देश है तो तुम हो हम हैं सब कुछ है.......यदि नहीं तो कुछ भी नहीं ..........

अपने सकारात्मक परिवर्तन की क्रांति से भयाक्रांत कर दो इन भ्रष्टाचारियों को, जिन्होंने देश के शरीर से एक एक बूंद खून चूस कर स्विस बैंकों में जमा किया हुआ है........अपने विचारों की आवाज़ इतनी बुलंद करो कि उसकी गर्जना सुन कर इनके पैर कांपने लगें, और ये सदैव के लिए आत्मसमर्पण करते हुए राष्ट्र की प्रगति की मुख्य धारा में शामिल हो जाएँ आज हमारी जाति केवल एक ही है "भारतीयता" और हमारा केवल एक ही धर्म है "राष्ट्र धर्म" और कुछ नहीं

आज सभी भारतवासियों के आत्मचिंतन का समय है....हमें हमारे भविष्य एवं वर्तमान के लिए राष्ट्र की आत्मा का समुद्र मंथन करना पडेगा , राष्ट्र एवं जन मानस के लिए यदि इस मंथन से निकले विष को भी पीना पड़े तो पीना ही होगा क्यों कि हम ही तो हैं राष्ट्र की आत्मा.... हम अर्थात भारत के नागरिक...........विशेष कर युवा.............

मधुकर पाण्डेय

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

सबसे पहले हमारे चैनल पर ये तस्वीर एक्सक्लूसिव है........!!!!!!!!!!


मुम्बई के २६ नवम्बर २००८ के आतंकवादी हमलों ने बहुत से प्रश्न खड़े कर दिए हैं. लगभग सभी राजनैतिंक दलों पर सवालों की एक जड़ी सी लग गई है. हमारा टेलीविजन समाचार मीडिया इन सवालों को उठाने में बहुत ही महत्व पूर्ण भूमिका निभा रहा है..

हमारे कार्यक्रम एंकर्स एवं सम्वाददाता इन सवालों को तीखा करने में कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं. सभी चैनल अपने अपने संवाददाताओं को इस हमले की पूरी रपट बहादुरी पूर्वक दिखाने के लिए, वीरों की तरह अपने अपने चैनलों पर प्रचारित व् प्रसारित कर रहे हैं, करना भी चाहिए क्योंकि यह एक गंभीर मामला था और क्यों कि ऐसा सजीव प्रसारण करने का अवसर समाचार चैनलों को कभी कभी ही हाथ आता है.

इस बहादुरी के कारनामों ने जहाँ एक तरफ़ भारतीय तथा अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों को एक सनसनी खेज़ घटना का सजीव प्रसारण देखने का अवसर दिया वहीं भारतीय समाचार चैनलों की कार्यप्रणाली पर अनेकों प्रश्न भी खडे कर दिए हैं.

"सबसे पहले, सबसे तेज़, सिर्फ़ इस चैनल पर, एक्सक्ल्यूसिव, केवल हमारे चैनल पर ही........ " आदि आदि.............जुमलों ने किसी भी सम्वेदनशील घटना का मजाक सा बना दिया.

अति उत्साह में हमारे चैनलों ने कमांडो कार्रवाई को लाइव दिखाया, एक नहीं लगभग सभी चैनलों ने ऐसा ही किया........सवाल है क्यों? क्या यह कारर्वाई लाइव दिखाना जरूरी था.? क्या इसे डेफर्ड प्रसारण के तौर पर नहीं दिखाना चाहिए था. नारीमन भवन में एक बहुत ही असाधारण सैन्य कारर्वाई चल रही थी, ..कमांडो आपरेशन एक आखिरी एवं रणनीतिक निर्णय था. क्यों कि वहां फंसे इजरायली बंधकों को जीवित एवं सुरक्षित लाने की योजना थी........परन्तु हमारे वीर संवाददाताओं ने अति उत्साह में इसे सारे विश्व के सामने सार्वजनिक कर दिया, जिसका फायदा उठाने में संभवतः वे आतंकवादी तथा उनके शुभचिन्तक भी शामिल रहे होंगे जो इन “गोपनीय रणनीतिक फैसलों और कारवाईयों” को भारतीय टीवी समाचार चैनलों की नासमझी से सजीव देख रहे हों. तथा कमांडो कारवाई को, उनके गुप्त हमलों के ठिकानों को भी हमारे चैनलों की कृपा से देख रहे हों.

कुछ ऐसा ही नज़ारा ताज महल होटल पर भी था. आतंकवादियों को शायद मालूम ही न पड़ता कि हमारे सेना, पुलिस के जवान कहाँ कहाँ पर तैनात हैं पर चैनलों की कृपा से उनके लिए यह सुविधा भी उपलब्ध थी...कि “भाई देखो हमने कहाँ कहाँ तुम्हारे स्वागत के लिए अपने सैनिक तैनात कर दिए है....बस निशाना लगाओ और भून डालो ८-१० को.............. “

ये कैसी पत्रकारिता थी जो हमारे सुरक्षा बालों और सेना की सभी कारवाईयों को स्पष्ट रूप से सार्वजनिक कर रहे थे. इस अत्याधुनिक संचार के युग में केवल ताज, ओबरॉय और नारीमन भवन के टीवी बंद कराने से काम नहीं चलता है... आज विश्व में कहीं पर भी बैठ कर आप बहुत से चैनलों को देख सकते हैं यहाँ तक कि अपने मोबाईल सेट पर भी. क्या यह सम्भव नहीं था कि पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं ने या भारत में ही बैठे उनके समर्थक, हमारी सारी सैन्य तैयारियों एवं कारवाईयों के इन सीधे प्रसारणों को देख कर वहीं से बैठे बैठे उन आतंकवादियों को दिशा निर्देश दे रहे हों. हो सकता है इन्ही कारणों से कमांडो कार्रवाई में इतनी देर हुई.........

हद तो तब हुई जब ताज वाले घटनास्थल पर तमाम चैनलों ने बहुत ही रणनीतिक दृष्टिकोण से गेट वे आफ इंडिया के ऊपर तैनात स्नाइपर सैनिकों को दिखाना शुरू कर दिया और चुन चुन कर वो स्थान दिखाने लगे जहाँ हमारे सैनिक मोर्चा लिए तैनात थे......

और एक समय ऐसा भी आया कि सैन्य बलों ने इन चैनलों को सजीव प्रसारण न दिखाने का आदेश दिया. क्यों कि इससे उनकी कारर्वाई में बाधा आ रही थी...........

एक नज़ारा और.........इसी घटना के मद्देनज़र गुजरात पुलिस के कमिश्नर की एक गोपनीय चिट्ठी जो उन्होंने अपने सभी सम्बन्धित अधिकारियों को भेजी थीं, जिसमें चेन्नई की दो संदिग्ध कंपनियों का ज़िक्र था कि उन पर इन आतंकवादियों को आर्थिक मदद पहुँचाने का संदेह है......... हमारे अति उत्साही चैनलों ने "सबसे पहले, एक्सक्ल्यूसिव" बनने की होड़ में उन दोनों कम्पनियों का नाम भी उजागर कर दिया.......अब वह कौन सी मूर्ख कम्पनी होगी जो इस खुलासे के बाद अपना यह काम जारी रखेगी.........समझ में नहीं आया कि हमारे चैनलों ने उसको पकड़वाने में मदद की या उसको ही संभल जाने में मदद की.... लेकिन अदूरदर्शिता एवं अपरिपक्वता का इससे बड़ा उदाहरण और कौन होगा............

४ दिसम्बर की शाम का एक ताजा उदाहरण है कि आतंकी हमले की धमकी के मद्देनज़र नई दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की सुरक्षा व्यवस्था बहुत ही कड़ी कर दी गई है. इस समाचार को महज़ सीधे सादे शब्दों में बताया जा सकता था परन्तु मुंबई हमलों के बहुत से अपरिपक्व प्रसारण की ही भांति यहाँ पर भी वह सम्वाददाता न केवल हवाई अड्डे को दिखा रहा था बल्कि वह सभी तरह की तकनीकी तथा गैर तकनीकी सुरक्षा व्यवस्थाओं का हवाला भी दे रहा था कि “अब यहाँ कितनी संख्या में कमांडो तैनात किया गए हैं, कहाँ कहाँ किस सामग्री का बंकर बनाया गया है, कौन कौन से जांच के यन्त्र लगाए गए हैं , उनकी क्षमता क्या है........आदि आदि” यह हमारी समझ के बाहर है ऐसी क्या जरूरत थी कि हमारी गोपनीय सुरक्षा व्यवस्था की इतनी विस्तृत जानकारी सार्वजनिक की जाए?. .....हम किसकी मदद कर रहे हैं???? .आम जनता की या आतंकवादियों की ........

सारी शासन-प्रशासन एवं सामाजिक , राजनैतिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाने वालों को, स्वयं ही इन अवांछित, अपरिपक्व एवं अदूरदर्शीय आचरण को त्यागना होगा...तथाकथित सबसे तेज़ रहने की होड़ से बाज आना पडेगा.....वरना टीवी चैनलों की सत्यता एवं निष्ठा पर आम जनमानस संदेह करने लगेगा.....कमोवेश आज के वातावरण में यह आशंका असंभव नहीं लगती.

पत्रकारिता इस लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है....परन्तु आज यह महज़ व्यापार बन गया है......यह सत्य है कि पत्रकारिता का कोई भी माध्यम हो चाहे वह समाचार पत्र हो या टीवी, सभी एक भारी पूंजीगत व्यवसाय हैं....इनको चलाने वाले विशुद्ध रूप से व्यवसायी हैं, उनका मूल उद्देश्य सिर्फ़ धन कमाना है, यह ग़लत भी नही लेकिन हमें पत्रकारिता की गुणवत्ता एवं व्यवसाय के बीच एक संतुलन बनाना होगा जिससे महज विज्ञापन एवं टीवी रेटिग हासिल करने के लिए पत्रकारिता के प्राथमिक सिद्धांतों की हत्या करने से बचा जा सके.

सारी दुनिया और व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ने वाले समाचार माध्यमों, खास तौर पर टीवी समाचार चैनलों को आत्म अवलोकन करना होगा, आत्म चिंतन करना होगा, ताकि पत्रकारिता का एक उच्च मानदंड स्थापित किया जा सके और किसी भी “राजनैतिक धारा विशेष के प्रति झुकाव तथा अकारण विरोध” के चंगुल से बाहर निकल कर निष्पक्ष, स्पष्ट एवं निर्भीक पत्रकारिता को स्थापित किया जा सके.......ताकि दिल्ली के किसी स्कूल टीचर के ऊपर देह व्यापार का स्टिंग आपरेशन तथा ग़लत आरोप लगा कर एक रात में लोकप्रियता हासिल करने का कुत्सित प्रयास न हो और किसी बेकसूर व्यक्ति के चरित्र हनन एवं सामाजिक बहिष्कार की पीडा से वह व्यक्ति और आम जन मानस बच सके..

नित नए टीवी समाचार चैनलों की बाढ़ ने एक ओर बहुत से अच्छे तथा तथा दूसरी ओर बहुत से नासमझ. अपरिपक्व एंकर्स तथा सम्वाददाताओं की एक सेना सी खड़ी कर दी है जिन्हें पत्रकारिता की एक विस्तृत एवं गहन शिक्षा की महती आवश्यकता है, ताकि वे जिस भी विषय पर अपना कार्यक्रम कर रहे हों, उस विषय की संवेदनशीलता एवं गंभीरता की उन्हें पूरी जानकारी हो.

पत्रकारिता क्या होती है? विषय की संवेदनशीलता क्या होती है? किसी भी समस्या या घटना को किस दृष्टिकोण से देखना चाहिए? किसी भी धटना की गैरजिम्मेदारी से की गई रपट समाज के लिए , राष्ट्र के लिए एवं किसी व्यक्ति के लिए कितनी घातक हो सकती है, टीआरपी और विज्ञापन पाने की होड़ में, इन बिन्दुओं को अनदेखा नहीं करना चाहिए. नहीं तो इसके दूरगामी घातक परिणाम होंगे.

आज के नौजवान, तेज़ तर्रार, अति उत्साही पत्रकारों को क्या स्व० गणेश शंकर विद्यार्थी जी का नाम मालूम है, जिन्होंने पत्रकारिता का एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया था, अगर नहीं मालूम है तो थोड़ा परिश्रम करके उनके बारे में पढ़ ज़रूर लेना चाहिए, इससे उनके कार्यों में एक नई दृष्टि और पैनापन आयेगा.

अभी बहुत परिपक्वता की आवश्यकता है हमारे समाचार टीवी चैनलों को.
पर उम्मीद पर दुनिया कायम है........हमें भी उम्मीद है कि हम भी अच्छे, संतुलित, निष्पक्ष एवं ज़िम्मेदारी से पूर्ण टीवी समाचार देख सकेंगे...........................

मधुकर पाण्डेय