बुधवार, 19 अगस्त 2009

जिन्ना, जसवंत एवं भारतीय जनता पार्टी : एक भ्रमित त्रिकोण

आज जसवंत सिंह पार्टी से बड़ी ही बेरुखी से निष्कासित कर दिए गए | भारतीय जनता पार्टी का यह एक ऐसा निर्णय था जिससे सारे देश में एक वैचारिक चिंतन का अध्याय आरम्भ कर दिया है कि इस स्वतंत्र देश में क्या किसी नागरिक को अपने विचार एक लोकतान्त्रिक पद्धति से व्यक्त करने का अधिकार है कि नहीं ?

अनुशासन एवं लोकतंत्र की दुहाई देने वाले एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल में धमासान मचा हुआ है| लगातार दो राष्ट्रीय आम चुनावों में पराजय का सामना करने के बाद इस दल के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं में दोषारोपण का एक घमासान आरम्भ हुआ है | यह विचारणीय है कि इस दल के राज्य स्तर पर सत्ता सँभालने वाले नेताओं में जनता के प्रति एवं अपने दल के प्रति अनुशासन एवं समर्पण की भावना,इस दल की केन्द्रीय राजनीति में पदस्थ नेताओं से कई गुना अधिक है|तभी इस दल द्वारा तीन राज्यों में पुन: शासन करने का जनादेश आम जनता से प्राप्त किया | राजस्थान में यह दल राज्य स्तरीय नेतृत्व के सामन्ती व्यवहार से पराजय को प्राप्त हुआ. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजस्थान में भाजपा अपने अच्छे कार्यों के बाद भी हार गई, कारण केवल एक ही था कि वहां दल के कुछ नेता राष्ट्रीय राजनीति के दिग्गजों से आर्शीवाद प्राप्त कर तत्कालीन मुख्यमंत्री के विरुद्ध लामबंद होकर सत्ता से बाहर करने पूर्ण प्रयास कर रहा था क्यों कि मुख्यमंत्री का व्यवहार एवं मानसिक वातावरण, देश की स्वतंत्रता के ६२ वर्षों बाद अभी भी सामन्ती युग में विचरण कर रहा था और अभी भी है | राजस्थांन में कांग्रेस को सत्ता तक पहुँचाने में भारतीय जनता पार्टी के विद्रोही तत्वों का योगदान, कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ताओं से नि:संदेह अधिक था | यह एक बहुत बड़ा कटुसत्य है परन्तु कोई भी दल इसको स्वीकार नहीं करेगा |

भाजपा आज बहुत ही भयानक अंतर्द्वंद में फंसी हुई पार्टी है, जो किसी भी तरह से अपना एक ठोस एवं स्पष्ट मार्ग एवं दिशा तय नहीं कर पा रही है|अनुशासित एवं आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली इस पार्टी में आज "सभी स्वतंत्र" हैं अपना-अपना वक्तव्य देने को, किसी की किसी की भी चिंता नहीं है| लोकतंत्र की सही व्याख्या का देश में अधिकांश जनमानस ने जिस तरह से अर्थ लिया है वह अराजकता के अतिरिक्त कुछ नहीं, संभवत: इसी कमज़ोर समझ की शिकार इस पार्टी का केन्द्रीय संगठन भी है| जसवंत सिंह का प्रकरण इसी कमज़ोर समझ का एक ज्वलंत उदाहरण है |

इस देश के संविधान ने सभी नागरिकों को अपने विचार लोकतान्त्रिक ढंग से व्यक्त करने का अधिकार दिया है और जसवंत सिंह ने वही किया है | हर किसी को देश के संवैधानिक ढाँचे के अर्न्तगत एक दूसरे से भिन्न विचार रखने की भी स्वतंत्रता है | जसवंत यदि अपनी बौध्हिक क्षमतानुसार देश के इतिहास के झरोखों में झाँक कर कुछ देखने का प्रयास करते हैं तो इसमें बुरा क्या है | इतिहास सदैव पीडादायक होता है चाहे वह सुखद रह हो या कि दुखद, इस प्रकरण में सर्वाधिक दुखद रहा क्योंकि जिस साम्प्रदायिकता की बात आज की जाती है, उससे कहीं भयानक एवं दुखद बात यह है कि हमारे उस समय के शीर्षस्थ नेताओं ने यदि कुछ भूलें की हैं तो हमें उन्हें एक बड़े दिल से स्वीकार करना चाहिए ताकि भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति नहीं हो | साथ ही उस समय के नेताओं के महत्वपूर्ण कार्यों एवं बलिदानों का भी उसी विशाल ह्रदय से नमन किया जाना चाहिए |

देश विभाजन की मांग का मूल कारण धर्म आधारित राजनीति था और धर्म के आधार पर एक स्वतंत्र देश की मांग तब सामने आई जब एक अल्पसंख्यक धर्म के लोगों के प्रतिनिधियों को देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस में एक उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा था | यहीं से सम्भवत: धर्म पर आधारित एक पृथक राजनैतिक दल बनाने की भावना को प्रोत्साहन मिला जिसका लाभ "बांटो एवं राज करो" की भावना वाले ब्रिटिश शासकों ने उठाया | यह स्पष्ट है कि जब भी किसी को अपने घर में एक उचित मान नहीं मिलता है तो वह बाहर की ओर देखने लगता है और इसी अवसर की तलाश में घर के बाहरी शत्रु होते हैं और हानि पहुँचाने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते और दुर्भाग्य से जिन्ना के धर्म आधारित पृथक राष्ट्र बनाने की भावना को बलवती करने में इन दोनों कारणों की ही बराबर की भूमिका एवं ज़िम्मेदारी रही हो सकती है | यदि इस दिशा में कोई अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग इस अतिदुर्भाग्य पूर्ण घटना का विश्लेषण संविधान की सीमाओं के अर्न्तगत करता है तो इसमें इतना हाय तौबा मचने की क्या आवश्यकता है ?

आज जो भी पाकिस्तान और कश्मीर की समस्या है वह भी सम्भवत: हमारे उस समय के शासकों की भूलों का ही परिणाम है, इसे खुले दिल से स्वीकार करना ही चाहिए, इसमें न तो देश हित के विरुद्ध ही कुछ होता है और न ही पार्टी हितों के विरुद्ध | यह इस देश के एक स्वतंत्र नागरिक की अपनी व्याख्या हो सकती है जिससे मतभेद रखना भी सभी नागरिकों का अधिकार है |

अपनी पहचान एवं विचारधारा के अंधे जंगल में फंसी इस पार्टी का यह निर्णय उसकी हताशा का द्योतक है | युवा भारत के सभी दलों में आज युवाओं को आगे आने की आवश्यकता है खासतौर से भाजपा को | यदि समयानुकूल अपनी रणनीति में इस पार्टी ने परिवर्तन नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब जनता इसे इतिहास के टोकरे में डाल दे |

भारत हजारों वर्षों से बौध्हिक प्रतिभा का स्थान रहा है, शास्त्रार्थों की एक लम्बी परम्परा रही है हमारे देश में , इसलिए हम सभी को किसी भी विषय पर विरोध करने से बेहतर होगा कि हम शास्त्रार्थ करें और जो भो निर्णय हो उसे स्वीकार करें |

और अंत में यदि भाजपा को तथाकथित पार्टी अनुशासन व लोकतंत्र के बारे में कुछ सीखना है तो कांग्रेस से सीख ही लेना चाहिए कि जहाँ विरोध के स्वर हाई कमान की एक हुंकार से सदैव के लिए शांत हो जाते हैं | सियार के दलों की प्रकृति का ही समयानुसार अनुशरण करे तो इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाये नहीं होंगी | किसी भी पार्टी का एक ही सर्वमान्य नेता होता है लेकिन जिस पार्टी में सभी बुद्धिमान एवं नेता हों वहां ऐसे दृश्य अवश्यम्भावी हैं |

चलते चलते ........हम स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र मिले ६२ वर्ष हो चुके हैं लेकिन हम अभी भी विचारों की स्वतंत्रता के प्रति परिपक्व नहीं | शायद स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र की समझ अभी भी नहीं है न वोट देने वालों को और न ही वोट मांगने वालों को पर हम, हमारे नागरिक एवं हमारा देश स्वतंत्र है और विश्व का एक बड़ा लोकतान्त्रिक देश है ??....

1 टिप्पणी:

Gyan Darpan ने कहा…

आपके विचारो से पूर्णतया सहमत |