आज देश को स्वामी विवेकानंद जैसे युवा क्रांतिकारी संत के नेतृत्व की आवश्यकता है। नपुंसक नेतृत्व की नहीं। आज देश को फिर से एक क्रांति की अति आवश्यकता है और वह है देश की राजनीतिक गंदगी को जड़ से उखाड़ फेंकने की क्रांति की आवश्यकता। विश्व के सभी देशों में हर देश का एक राष्ट्रीय धर्म होता है, राष्ट्रीय भाषा होती है इसलिए वहां के नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना स्वत: स्फूर्त होती ही है। अफसोस है कि हमारे यहां इस भावना को जगाने के लिए एक करगिल, एक मुंबई हमला ही क्यों दरकार होता है।
एक तथ्य और... हमारे यहां राजनीतिक कामधेनु 'धर्म निरपेक्षता’ का राज है... ऐसा लगता है कि अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया में यदि धर्म निरपेक्षता नहीं है तो वहां क्या साम्प्रदायिकता का राज है?दुख की बात है कि जिस देश के ऋषि मुनियों ने 'सर्व धर्म समभाव’ एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम’ का पाठ पढ़ाया हो वहां साम्प्रदायिकता एवं धर्म निरपेक्षता की वकालत करने की आवश्यकता ही क्या है? लेकिन इसकी वकालत तो इन राजनीतिकों को सत्ता हासिल करने के लिए बहुत ही जरूरी है। वरना ये तो बेचारे मृत प्राय ही हो जाएंगे क्योंकि यह तो उनके लिए कामधेनु और प्राण वायु का काम जो कर रही है और उस पर सबसे अफसोस तब होता है जब मुंबई हमलों में शामिल एक आतंकवादी एक टीवी चैनल पर हमारे तथाकथित 'सच्चर कमीशन’ की सिफारिशों को लागू करने की बात करता है। प्रश्न है एक आतंकवादी के मुंह से इन बातों की जरूरत क्यों, सच्चर कमीशन की वकालत क्यों...?
हम सभी को तत्काल आत्मावलोकन की आवश्यकता है। वरना मुट्ठी भर आतंकवादियों ने जब तीन दिनों तक पूरे देश को बेहाल कर दिया तो आगे क्या हो सकता है इसकी कल्पना हम कर सकते हैं। हमें आज जाति, भाषा, प्रदेश को भूलते हुए सिर्फ अपने देश भारत के बारे में सोचना होगा क्योंकि यदि भारत सुरक्षित है तो हम सुरक्षित हैं लेकिन भगवान के लिए, देश के लिए और स्वयं अपने अस्तित्व के लिए इन नेताओं का हित कतई मत सोचना।
मैं मुंबई में ही रहता हूं और इस महानगर की व्यथा से भलीभांति परिचित भी हूं... यहां की तथाकथित 'मुंबई स्पिरिट’ से जी भर गया है... दरअसल यह मुंबई स्पिरिट नहीं बल्कि इस शहर के अधिकांश लोगों की आजीविका की वीभत्स विवशता है जो उसे अपने परिवार की सांसें चलाने के लिए प्राण हथेली पर लेकर दो जून की रोटी की व्यवस्था करने के लिए घर से बाहर निकलने को विवश करती है... जिसे इस शहर के चंद तथाकथित सम्भ्रांत व्यक्तियों के क्लबों ने 'मुंबई स्पिरिट’ का नाम देकर समाचार माध्यमों में अपनी निरर्थक, निष्प्रयोज्य उपस्थिति दर्शाने का माध्यम बना लिया है... जिनके दर्शन ऐसी घटनाओं के बाद मात्र पेज-3 की पार्टियों की तस्वीरों में ही सम्भव हो पाते हैं।
मेरा यह परम विश्वास है कि किसी भी व्यक्ति से बड़ा और अमर उसका विचार होता है। क्रांतिकारियों को तो मारा जा सकता है परंतु क्रांति के विचारों को कदापि नहीं। यदि इस विश्व पर कोई कौम या कोई नस्ल मानवता विरोधी, विनाशकारी विचारों को जिंदा रखे है मात्र अपने निजी हितों के लिए... तो हमारी संस्कृति ने भी हमें यह शिक्षा दी है कि हम अपने सशक्त एवं समृद्ध सनातन विचारों को बड़ी ही मजबूती से सम्पूर्ण विश्व में फैला दें कि हम 'सर्व धर्म समभाव एवं वसुधैव कुटुम्बकम’ जैसी कालजयी शिक्षा से सुसंस्कृत हैं, लेकिन हमें भी अपने स्वाभिमान की रक्षा करना आता है... इस कलियुग में भी हमारी सेना के कमांडो ने यह साबित कर दिया है कि इस ऑपरेशन में हमारे सैनिकों ने न जाने कितने विदेशी बंधकों को भी सुरक्षित बाहर एवं जीवित निकाला है जिसमें चीन, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, जापान, कोरिया, इजरायल आदि अनेकों देशों के नागरिक थे और वो भी हमें उतने ही प्रिय थे जितने कि उस हमले में फंसे भारतीय नागरिक। हमारी सनातन संस्कृति का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। सेना के इस उदाहरण से हमारे राज नेताओं को चुल्लू भर पानी में डूब जाना चाहिए जो अपने निजी स्वार्थों के लिए ही जानी जाती है। धर्म, भाषा एवं परप्रांतीयता के नाम पर इस देश के नागरिकों को ही आपस में लड़वा रहे हैं। ऐसे ही निम्न स्तर के तो हमारे नेतागण हैं।
यह वक्त मोमबत्ती हाथ में पकड़ कर दुख मनाने का नहीं है... यह वक्त टेलीविजन चैनलों पर निरर्थक बहस में भाग लेने का नहीं... यह समय दोषारोपण का नहीं... यह समय पाकिस्तान को गालियां देने का नहीं... यह समय लकीरें पीटने का नहीं... यह समय शोक मार्च निकालने का नहीं... बल्कि यह समय आत्मा के समुद्र मंथन का है... यह समय अपने हाथों में इस सनातन देश की जिम्मेदारियों को लेने का है... यह समय देश की रक्षा के लिए स्वयं एक सशक्त सैनिक बनने का है... जिस दिन इस देश का हर एक नागरिक एक स्वत:स्फूर्त सैनिक बनने की ठान लेगा... इस देश की ओर आंख उठाने का सपना भी कोई नहीं देख सकेगा।यह हो सकता है कि हमारा यह विचार शायद विभिन्नताओं से भरे इस विशाल देश में शायद किसी कवि की एक कोरी कल्पना लगे परंतु यदि थोड़ी सी भी संख्या में ही लोग सक्रिय हो गए तो तस्वीर का रूख बदलते देर नहीं लगेगी क्योंकि यह बहुत ही विचारणीय कटुतम सत्य है कि जब सिर्फ 10 आतंकवादियों ने सवा करोड़ की आबादी वाले तथाकथित मुंबई स्पिरिट वाले इस महानगर बल्कि सम्पूर्ण देश को एक तरह से बंधक सा बना लिया था तो क्या इस देश की सवा अरब से भी ज्यादा जनसंख्या में से यदि कुछ भी प्रतिशत लोग जागृत हो गए तो हम समझ सकते हैं कि हम क्या कर सकते हैं।
हमें यह कायरता की विचारधारा को छोड़ना होगा कि भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, गणेश शंकर विद्यार्थी, ठाकुर रोशन सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान पैदा तो जरूर हों लेकिन हमारे घर में नहीं बल्कि पड़ोसी के घर में... आज हमें शाहरूख खान नहीं, आज हमें गांधी-नेहरू संतति की नहीं... आज हमें अमिताभ बच्चन नहीं... आज हमें मेजर उन्नीकृष्णन जैसे सिंहों की आवश्यकता है, जो अपने माता-पिता की एक मात्र संतान थे... कमांडो गजेन्द्र सिंह जैसे शेरों को पैदा करने की जरूरत है... माइकल जैक्शन जैसे लोगों की नहीं...
जय भारत।
मधुकर पाण्डेय
1 टिप्पणी:
It is today's utmost need to have such kind of feelings.One should understand that his own existance is in question when country's sovereignity is in danger in view of ongoing terrorist attacks and our Leaders are busy in capitalising the situstion for their vested interests.
Anand
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